क्या 5000 या 10000 मे हिंदुओं भाइयों की मोहब्बत खरीदी जा सकती है
गत दिनों हाथरस हादसे के बाद जमीयत उलेमा ए हिंद (अरशद मदनी गुट)ने वहां पर ज़ख्मियों को₹5000 और मरने वालों को₹10000 का सहयोग किया इस सहयोग के बाद बहुत से लेखकों ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि यह सहयोग अनुचित था और कुछ ने लिखा के यह सहयोग कम था इसके उत्तर में जमीयत उलेमा ए हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा है कि हिंदू भाइयों का सहयोग कर उन्होंने एकता और भाईचारे को स्थापित करने का प्रयास किया है।
व्यक्तिगत तौर पर हमारी राय है कि इस सहायता पर जमीयत उलेमा ए हिंद की आलोचना नहीं होनी चाहिए थी किसी की मदद करना एक अलग बात है यह किसी के दुख में शामिल होना और उसकी सहायता करना है। दूसरी और जमीयत उलेमा ए हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष को भी एक कीमत लगाकर एकता और भाईचारे को खरीदने का दावा नहीं करना चाहिए था। एकता और भाईचारा देश प्रेम या सहयोग की भावना इसका मूल्य नहीं लगाया जा सकता और ना ही इसको जबरदस्ती दिल में पैदा किया जा सकता। हजरत मौलाना अरशद मदनी ने यह बात कह कर जमीअत उलमा ए हिंद का नहीं बल्कि हम सब का भी वजन हल्का कर दिया है।
वर्तमान में एकता भाईचारे को स्थापित करने के लिए रूपए पैसे की नहीं बल्कि इस्लाम धर्म और मुसलमान के व्यावहारिक स्तर को अच्छी तरह से पेश करने की जरूरत है। जिसका अभाव लंबे समय से अच्छे और सच्चे हिंदू और मुसलमान दोनों महसूस कर रहे हैं। गत हजार साल से मुसलमान और हिंदू इस देश के अंदर प्रेम पूर्वक रह रहे थे और आज भी रह रहे हैं आज मुसलमान के हक में जितना हिंदू भाई बोलते हैं उतना मुसलमान नहीं बोलते अगर कोई सरकार मुसलमान की नमाज और कुर्बानी पर पाबंदी लगती है तो उसका सबसे ज्यादा समर्थन मुस्लिम संस्थाएं, उलेमा, ईदगाहों और मस्जिदों के संरक्षक करते हैं।
वो बड़े-बड़े फ्लेक्स और पोस्टर के माध्यम से मुसलमान को नमाज और कुर्बानी करने की नसीहत करते हैं जबकि इसकी विपरीत कुछ हिंदू मुसलमान के इस हक के लिए आवाज बुलंद करते हैं।
गत ईद उल अजहा पर स्वयं मौलाना अरशद मदनी ने मुसलमान को सुरक्षित स्थान पर कुर्बानी करने की नसीहत की थी, ऐसे कितने लोग मौलाना के समर्थन में आए थे और उन्होंने कहा था की आप गत परंपराओं के भांति अपने त्यौहार अपनी नमाजे और अपनी कुर्बानी मनमर्जी से करो शायद एक भी नहींमौ
लाना अरशद मदनी यह क्यों भूल जाते हैं की 1947 के अंदर उनके वालिद हजरत मौलाना हुसैन अहमद मदनी रहमतुल्ला अलैह ने हिंदुस्तान का खुला समर्थन और पाकिस्तान का विरोध किया था और यहां पर मुसलमान को रहने के लिए अपने विश्वास में लिया था। लेकिन 15 अगस्त 1947 को उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था वो पूरे मुल्क मे हिंदू मुस्लिम दंगों को नही रोक सके थे।मूक दर्शक बनकर घर मे रहे थे और फिर उन्होंने अपना सारा समय कांग्रेस के संरक्षण में गुज़ारा और उनके बड़े भाई मौलाना सैयद असद मदनी रहमतुल्लाह अलेह ने भी कांग्रेस को ही तरजीह दी, जब 1992 में बाबरी मस्जिद शहीद हुई तो वह यह साहस भी नहीं जुटा पाए थे के राज्यसभा से इस्तीफा देकर बाहर आ जाएं।
मगर परिणाम आज सबके सामने है कांग्रेस ने 1947 से लगाकर 2014 तक उन मुसलमानो को महत्व दिया जो ईमान के कच्चे और शक्ल से बिल्कुल भी मुसलमान नहीं लगते थे। कांग्रेस ने बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को मंत्रालय भी दिए और गौर करने पर पता चलता है कि कांग्रेस में ज्यादातर वो लोग थे। जिनकी बेटियों हिंदुओं के यहां थी या फिर उनकी बहुएं हिंदू लड़कियां थी कहने का मकसद यह है कि कांग्रेस में एकता और भाईचारे का नाम सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस का समर्थन था। जिसको उनके वालिद और भाई ने बड़ी अकीदत के साथ निभाया।
यहां पर यह बहस लंबी हो जाएगी क्योंकि लोग असल मुद्दे को छोड़कर इस वाले मुद्दे को पकड़ कर बैठ जाएंगे। लेकिन यह वास्तविकता है जिस पर से पर्दा हटा हुआ है और दिमाग पर पर्दा पड़ा हुआ है।
आज देश के हालात बहुत दूसरे हैं
सब कुछ एक इतिहास के शक्ल में सामने है चमचमाता ताजमहल, शान के साथ खड़ा हुआ लाल किला, लोगों को पांच वक्त नमाज की दावत देती दिल्ली की जामा मस्जिद, हिंदुस्तान का सर गर्व से बुलंद करने वाला कुतुब मीनार और ऐसी हजारों इमारतें जो आज भी सोने का अंडा केंद्र और प्रदेश सरकारों को रोजाना दे रही हैं मगर वह उनके अंदर मंदिर तलाश कर रहे हैं। आज पूरे देश में खाने, कपड़े, परंपराओं, भाषा के नाम पर जो कुछ है वह सब की सब मुसलमान की विशेष रूप से मुगल सल्तनत की देन है अगर इससे कोई मुंह मोड़ता है तो मोड़ता रहे। इन हालात में एकता और भाईचारे को ₹5000 या ₹10000 में नहीं खरीदा जा सकता।
हकीकत यह है जमीयत के दोनों गुट इस देश में मुसलमान का भला करने में पिछले 50 साल में पूर्ण रूप से असफल हैं। इस असफलता को जमीयत उलेमा ए हिंद को स्वीकारना चाहिए। संगठन ख़ुद आज तक जाति और क्षेत्र के नाम पर बटी हुई है स्वयं उसके यहां चुनाव का कोई पैमाना नहीं है ।60 के दशक में मेरठ में गुंडों द्वारा कब्जा करने के बाद जमीयत उलेमा ए हिंद स्वयं एक परिवार का ट्रेडमार्क और चंदा उद्योग बनकर रह गई है। इन हालात में हिंदुओं को प्रभावित करने से अच्छा है की जमीयत उलेमा ए हिंद के दोनों धडे सबसे पहले मुसलमान के अंदर एकता और भाईचारा कायम करें और उसके बाद अपने घर से बाहर निकले जमीयत को एक विशेष वर्ग एक आंख नहीं भाता। आज भी उसके सारे उच्च पदाधिकारी या तो उसके परिवार जन है और भविष्य में भी होंगे या वह हैं जो मानसिक रूप से गुलाम हैं।
इन हालात के अंदर जमीयत उलेमा ए हिंद को चाहिए कि वह शांति और एकता का मूल्य निर्धारण ना करे। बल्कि अपने व्यवहार के अंदर बड़ा परिवर्तन लाए और जिन मुद्दों का दिल्ली के अंदर बैठकर निर्णय करती है उसे सबसे पहले जमीयत उलेमा ए हिंद और दारुल उलूम देवबंद में जो पूरी तरह से उनके कंट्रोल में है उसे पर लागू करे। उसके बाद कहीं हिंदू हजरात से एकता और अखंडता के बारे में, भाईचारे के बारे में शांति और अमन के बारे में सोचे।
नोट: अब समय आ गया है कि मुस्लिम पत्रकारों, लेखकों, सोशल मीडिया से जुड़े लोगों और समाचार पत्रों के मालिकों को भी मुस्लिम हित में जमीयत उलेमा ए हिंद के विरोध में ना सही समीक्षा तो करनी ही चाहिए। आज भी स्थिति यह है कि यदि कोई संवाददाता भूल चूक से दो शब्द जमीयत की समीक्षा या आलोचना में लिख देता है तो उसी समय संवाददाता को नसीहत की जाती है या फिर उन लाइनों को हटा दिया जाता है यह हालत दिल्ली में बैठे उन बड़े समाचार पत्रों की है जो 24 घंटे खुद को मुसलमानो का मसीहा साबित करते हैं और सरकार की आलोचना करते हैं मगर यही लोग वार्षिक चंदे और विज्ञापन के नाम पर मुस्लिम संगठनों के विरुद्ध मुंह खोलने गुनाह समझते हैं। यह कौन सी पत्रकारिता है यह कहां का तरीका है कि तुमने एक संगठन को जिसका करोड़ों रुपए सालाना चंदा है। उसको व्यक्तिगत लाभ के लिए मुसलमानौ के शोषण के लिए खुला छोड़ दिया है। याद रखो इसका हिसाब सिर्फ जमीयत से नहीं उन लोगों से भी होगा जो झूठ के सहरे में सच के फूल सजाकर उनके सर पर बांध रहे हैं)